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रंग जगत् के अन्तरंग रंग को दर्शाता एक व्यंग्य नाटक
Urgent Meeting - A Hindi Book - by Jaywardhan
जयवर्धन उपनाम। पूरा नाम जयप्रकाश सिंह (जे० पी० सिंह)। प्रतापगढ़ (उ० प्र०) ज़िले के मीरपुर गाँव में वर्ष 1960 में जन्म। अवध विश्वविद्यालय से स्नातक। 1984 में लखनऊ विश्वविद्यालय से विधि-स्नातक। लखनऊ दूरदर्शन में दो वर्षों तक आकस्मिक प्रस्तुति सहायक के रूप में कार्य। श्रीराम सेंटर, दिल्ली में एक वर्ष मंच प्रभारी। वर्ष 1988–94 तक साहित्य कला परिषद, दिल्ली में कार्यक्रम अधिकारी। भारतीय नाटूट संघ, नीपा एवं अन्य कई संस्थाओं के सदस्य व सांस्कृतिक सलाहकार।
रंगमंच में विशेष रुचि। अभिनव नाट्य मंडल, बहराइच (उ० प्र०) और रंगभूमि, दिल्ली के संस्थापक। कभी दर्पण, दिल्ली के सक्रिय सदस्य। लगभग 40 नाटकों में अभिनय। 20 नाटकों का निर्देशन तथा 70 नाटकों की प्रकाश परिकल्पना।
कविता, गीत, एकांकी, नाटक, आलेख, समीक्षा, नुक्कड़ नाटक एवं सीरियल आदि का लेखन।
प्रमुख पूर्णकालिक नाटक : ‘मस्तमौला’, ‘हाय ! हैंडसम’, ‘अर्जेंट मीटिंग’, ‘मायाराम की माया’, ‘मध्यांतर’, ‘अंततः’, ‘कविता का अंत’, ‘झाँसी की रानी’, ‘कर्मेव धर्मः’ (नौटंकी)।
बाल नाटकः ‘जंगल में मंगल’, ‘घोंघा बसंत’, ‘चंगू-मंगू’, ‘हम बड़े काम की चींज़’।
संप्रतिः साहित्य कला परिषद, दिल्ली में सहायक सचिव (नाटक) के पद पर कार्यरत।
रंगमंच में विशेष रुचि। अभिनव नाट्य मंडल, बहराइच (उ० प्र०) और रंगभूमि, दिल्ली के संस्थापक। कभी दर्पण, दिल्ली के सक्रिय सदस्य। लगभग 40 नाटकों में अभिनय। 20 नाटकों का निर्देशन तथा 70 नाटकों की प्रकाश परिकल्पना।
कविता, गीत, एकांकी, नाटक, आलेख, समीक्षा, नुक्कड़ नाटक एवं सीरियल आदि का लेखन।
प्रमुख पूर्णकालिक नाटक : ‘मस्तमौला’, ‘हाय ! हैंडसम’, ‘अर्जेंट मीटिंग’, ‘मायाराम की माया’, ‘मध्यांतर’, ‘अंततः’, ‘कविता का अंत’, ‘झाँसी की रानी’, ‘कर्मेव धर्मः’ (नौटंकी)।
बाल नाटकः ‘जंगल में मंगल’, ‘घोंघा बसंत’, ‘चंगू-मंगू’, ‘हम बड़े काम की चींज़’।
संप्रतिः साहित्य कला परिषद, दिल्ली में सहायक सचिव (नाटक) के पद पर कार्यरत।
अर्जेंट मीटिंग
(रंग जगत् के अन्तरंग रंग को दर्शाता एक व्यंग्य नाटक)
प्रथम प्रदर्शन रंगभूमि, दिल्ली द्वारा 23 अप्रैल, 2005 को एल०टी०जी० ऑडिटोरियम, मंडी हाउस में किया गया, तथा वर्ष की उत्कृष्ट नाट्य-प्रस्तुति के रूप में चुना गया। उदयपुर, ग्वालियर, जबलपुर, चण्डीगढ़, कुरुक्षेत्र, लखनऊ, इलाहाबाद, नागपुर, ग़ाज़ियाबाद, हमीरपुर, रायपुर एवं दिल्ली में आयोजित अनेक राष्ट्रीय नाट्य-समारोहों में इस नाटक के अब तक लगभग 20 सफ़ल प्रदर्शन हो चुके हैं।
पात्र-परिचय
अमर बहादुर चौहान : चौकीदार
डी० भटनागर : डिप्टी डायरेक्टर
अजन्ता : नाट्य-समीक्षिका
प्रो० सदानन्द भारती : नाटक के प्रेमी
अनुभव त्रिपाठी : अनुवादक
नमन कुमार : अभिनेता
अचल : युवा लेखक
घनानन्द बजाज : कला संस्था के मालिक
अजीत नारंग : नाट्य-निर्देशक
रामभरोसे : सीनियर ड्राइवर (संदेशवाहक)
[अस्त-व्यस्त बैठक कक्ष। दोपहर के बाद का समय। चौकीदार के साथ कला एवं संस्कृति विभाग के डिप्टी डायरेक्टर डी० भटनागर का प्रवेश, जिनके हाथ में वाटर जग और कुछ फ़ाइलें हैं।]
चौकीदार : आइये साब, आइये। ज़रा यहाँ की हालत देखिए। महीनों से बन्द पड़ा है। मीटिंग होने वाली थी तो पहले से सफ़ाई कराना चाहिए था कि नहीं ?
भटनागर : चौहान, पहले से कुछ पता कहाँ था ? आज अचानक मीटिंग बुलायी गयी है, जल्दी कुछ करो।
चौकीदार : साब ! आज छुट्टी है, ऐसे में मैं क्या करूँ ?
भटनागर : कुछ भी। ये ऐसी-वैसी नहीं, बल्कि अर्जेंट मीटिंग है। रात में जब से मिनिस्टर साहब के पी० ए० का फ़ोन आया है, मेरी नींद हराम हो गयी है। सुबह से सारे मेम्बर्स को फ़ोन कर रहा हूँ। जो फ़ोन पर नहीं मिले, मीटिंग नोटिस देने उनके घर तक गया। सुबह से पोस्टमैन की तरह दौड़ रहा हूँ।
चौकीदार : साब, आप दौड़ रहे हैं, क्योंकि आपको डिप्टी डायरेक्टर से डायरेक्टर बनना है; मगर ए० बी० सी० यानी अमर बहादुर चौहान कल भी चौकीदार था, आज भी चौकीदार है और कल भी चौकीदार ही रहेगा, बल्कि एक दिन रिटायर भी बतौर चौकीदार होगा। मुझे मीटिंग-सीटिंग से क्या लेना-देना ? अच्छा मैं चलता हूँ, बीवी को पिक्चर दिखाने जाना है।
भटनागर : फिक्चर...? आज...?
चौकीदार : हाँ..., आज। तीन से छह, टायटेनिक का शो दिखाना है।
भटनागर : चौहान, यहाँ मेरा टायटेनिक डूबने जा रहा है और तुम्हें पिक्चर की पड़ी है। इतने हाई लेवेल की मीटिंग को छोड़कर तुम पिक्चर देखने कैसे जा सकते हो ?
चौकीदार : साब, मीटिंग में जो कुछ करना है, आपके मेम्बर्स को करना है। इस मीटिंग में भला अमर बहादुर चौहान का क्या काम है ? ये अर्जेंट मीटिंग है। चौकीदार, यूनियन की मीटिंग तो है नहीं।
भटनागर : अरे भाई, पिक्चर देखने अगले संडे को चले जाना।
चौकीदार : हुँह, अगले संडे को ! आज पिक्चर न जाने पर घर में एक हफ़्ता जो महाभारत होगा, उसको कौन झेलेगा ? नहीं साब, नहीं...। आज मैं थोड़ी-सी ज़हमत उठाकर, अगले एक हफ़्ते तक रामायण का सुन्दर पाठ सुनना चाहता हूँ और सुख-चैन से जीना चाहता हूँ। मंगल भवन अमंगल...।
भटनागर : मंगल...। इससे पहले कि कोई अमंगल हो, तुम यहाँ से दफ़ा हो जाओ।
चौकीदार : जी, शुक्रिया।
भटनागर : और हाँ, मैं खुद सफ़ाई करने जा रहा हूँ।
चौकीदार : अच्छी बात है, कीजिए।
भटनागर : मीटिंग का समय हो गया है, कभी भी कोई आ सकता है, इसलिए बाहर ज़रा ध्यान रखना, जैसे ही कोई आये...।
चौकीदार : मैं उसे अन्दर भेज दूँगा।
भटनागर : नहीं।
चौकीदार : अच्छा, वापस भेज दूँगा।
भटनागर : नहीं, फौरन आकर मुझे बता देना, वरना मेरी इज़्ज़त का चूरन बन जाएगा।
चौकीदार : नहीं साब, अमर बहादुर चौहान ऐसा हरगिज, नहीं होने देगा। कुछ भी हो, आपकी इज़्ज़त हमारी इज़्ज़त है।
भटनागर : बहुत-बहुत शुक्रिया।
चौकीदार : अच्छा चलता हूँ।
भटनागर : रुको। जब तक न कहूँ, बिल्कुल मत हिलना।...सुनो, मेरी टेबल पर कुछ फ़ाइलें हैं, यहाँ दे जाना। हुँह...अच्छा-ख़ासा छुट्टी का दिन और मैं यहाँ ऑफ़िस में झख मार रहा हूँ।
[भटनागर सूट-बूट उतारने लगता है। अचानक चौकीदार पर नज़र पड़ती है, जो मूर्तिवत् खड़ा है।]
भटनागर : तुम ? यहाँ खड़े-खड़े क्या कर रहे हो ?
चौकीदार : साब, आपने ही तो अभी कहा था कि जब तक न कहूँ, बिल्कुल मत हिलना।
भटनागर : ग़लती हो गई मेरे बाप, बहुत बड़ी ग़लती हो गई। मुझे माफ़ कर दो और यहाँ से जाओ।
चौकीदार : जाऊँ ?
भटनागर : मैं भी वही कह रहा हूँ, जाओ।
चौकीदार : ठीक है, जाता हूँ।
भटनागर : धन्य भाग्य हमारे।...पूरा नमूना है नमूना।
[चौकीदारह जाता है। भटनागर सफ़ाई की तैयारी करता है]
भटनागर : (स्वगत) डायरेक्टर साहब सपरिवार सैर-सपाटे पर गये हैं और तख़्त-ए-ताउस मेरे लिए छोड़ गए हैं। सुबह से चकरघिन्नी बना घूम रहा हूँ। वाह, क्या ठाठ हैं ! पता होता कि डायेक्टर का चार्ज लेते ही स्वीपर बनना पड़ेगा तो भूलकर भी चार्ज न लेता। मुझसे ज़्यादा सुखी तो चौकीदार चौहान है, जो छुट्टी के दिन बीवी को पिक्चर दिखाने जा रहा है और मैं...ऐसी हालत में मुझे देखकर कोई कहेगा कि मैं कला एवं संस्कृति विभाग का डिप्टी डायरेक्टर हूँ ?...जी नहीं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी कहेगा।
[चौकीदार कुछ फ़ाइलें लाकर एक ओर रखता है और ध्यान से भटनागर को देखने लगता है। भटनागर चिढ़ जाता है ]
भटनागर : क्या है...? चड्ढी में कभी किसी आदमी को नहीं देखा है क्या ?
चौकीदार : बहुत देखा है साब, लेकिन दफ़्तर में किसी अफ़सर को ऐसी हालत में कभी नहीं देखा है।
भटनागर : आज देख लिया ? अब जाओ, अपना काम करो।...अरे हाँ, ज़रा टेलीफ़ोन लाकर यहाँ कनेक्ट कर देना।
चौकीदार : साब, पिक्चर का टाइम हो रहा है, घरवाली इन्तज़ार कर रही होगी, अगर बुरा न माने तो एक बात पूछूँ ?
भटनागर : पूछो।
चौकीदार : फोन बहुत ज़रूरी है क्या ?
भटनागर : नहीं-नहीं, बस ऐसे ही मँगा रहा हूँ। हो सकता है कि बीच में गपशप और मौजमस्ती के लिए ज़रूरत पड़ जाये।
[भटनागर झल्ला उठता है। चौकीदार अनमना-सा मुँह बनाकर बाहर चला जाता है। भटनागर बड़बड़ाता रहता है और काम निपटाता जा रहा है।]
भटनागर : जापान में भारत महोत्सव बाद में होगा, मेरा महोत्सव पहले ही हो रहा है। आप ही बताइये मुझे देखकर कोई कहेगा कि मैं ऑफ़ीसर हूँ ? जी नहीं, कच्चा-बनियान गिरोह का सरगना कहेगा।...हुँह, अफ़सर बनने चले थे...और बनो बेटा सफ़सर। अच्छा होता कि कहीं छोटे-भठूरे की दुकान खोल लेता, जहाँ अपनी इज़्ज़त तो होती, अपनी मर्ज़ी चलती। यहाँ पी० ए० महाशय ने गधे की तरह जोत दिया। हुँह, अर्जेंट मीटिंग...ज़रा-सा उन्नीस-बीस हो गया तो अपने राम का जुलूस निकल जायेगा।...मीटिंग-सीटिंग की अपनी आदत बिल्कुल नहीं है। जितने लोग, उतनी बातें। बेसिर-पैर की बातें। एक-दूसरे की बात काटकर अपनी बात को ऊपर रखना। एक-दूसरे की टाँग खींचना। बेमतलब का पांडित्य प्रदर्शन करके दूसरों पर रोब जमाना। कुछ सिर्फ़ हाँ में हाँ मिलाते हैं और कमेटी में बना रहना चाहते हैं। कुछ को सिर्फ़ गुरुदक्षिणा से मतलब होता है। और कहीं नारंग जैसे मेम्बर आ जायें तो जूतपैजार की नौबत आ जाती है। हालाँकि नारंग को मैंने फ़ोन पर इस मीटिंह के बारे में कुछ नहीं बताया है।
डी० भटनागर : डिप्टी डायरेक्टर
अजन्ता : नाट्य-समीक्षिका
प्रो० सदानन्द भारती : नाटक के प्रेमी
अनुभव त्रिपाठी : अनुवादक
नमन कुमार : अभिनेता
अचल : युवा लेखक
घनानन्द बजाज : कला संस्था के मालिक
अजीत नारंग : नाट्य-निर्देशक
रामभरोसे : सीनियर ड्राइवर (संदेशवाहक)
[अस्त-व्यस्त बैठक कक्ष। दोपहर के बाद का समय। चौकीदार के साथ कला एवं संस्कृति विभाग के डिप्टी डायरेक्टर डी० भटनागर का प्रवेश, जिनके हाथ में वाटर जग और कुछ फ़ाइलें हैं।]
चौकीदार : आइये साब, आइये। ज़रा यहाँ की हालत देखिए। महीनों से बन्द पड़ा है। मीटिंग होने वाली थी तो पहले से सफ़ाई कराना चाहिए था कि नहीं ?
भटनागर : चौहान, पहले से कुछ पता कहाँ था ? आज अचानक मीटिंग बुलायी गयी है, जल्दी कुछ करो।
चौकीदार : साब ! आज छुट्टी है, ऐसे में मैं क्या करूँ ?
भटनागर : कुछ भी। ये ऐसी-वैसी नहीं, बल्कि अर्जेंट मीटिंग है। रात में जब से मिनिस्टर साहब के पी० ए० का फ़ोन आया है, मेरी नींद हराम हो गयी है। सुबह से सारे मेम्बर्स को फ़ोन कर रहा हूँ। जो फ़ोन पर नहीं मिले, मीटिंग नोटिस देने उनके घर तक गया। सुबह से पोस्टमैन की तरह दौड़ रहा हूँ।
चौकीदार : साब, आप दौड़ रहे हैं, क्योंकि आपको डिप्टी डायरेक्टर से डायरेक्टर बनना है; मगर ए० बी० सी० यानी अमर बहादुर चौहान कल भी चौकीदार था, आज भी चौकीदार है और कल भी चौकीदार ही रहेगा, बल्कि एक दिन रिटायर भी बतौर चौकीदार होगा। मुझे मीटिंग-सीटिंग से क्या लेना-देना ? अच्छा मैं चलता हूँ, बीवी को पिक्चर दिखाने जाना है।
भटनागर : फिक्चर...? आज...?
चौकीदार : हाँ..., आज। तीन से छह, टायटेनिक का शो दिखाना है।
भटनागर : चौहान, यहाँ मेरा टायटेनिक डूबने जा रहा है और तुम्हें पिक्चर की पड़ी है। इतने हाई लेवेल की मीटिंग को छोड़कर तुम पिक्चर देखने कैसे जा सकते हो ?
चौकीदार : साब, मीटिंग में जो कुछ करना है, आपके मेम्बर्स को करना है। इस मीटिंग में भला अमर बहादुर चौहान का क्या काम है ? ये अर्जेंट मीटिंग है। चौकीदार, यूनियन की मीटिंग तो है नहीं।
भटनागर : अरे भाई, पिक्चर देखने अगले संडे को चले जाना।
चौकीदार : हुँह, अगले संडे को ! आज पिक्चर न जाने पर घर में एक हफ़्ता जो महाभारत होगा, उसको कौन झेलेगा ? नहीं साब, नहीं...। आज मैं थोड़ी-सी ज़हमत उठाकर, अगले एक हफ़्ते तक रामायण का सुन्दर पाठ सुनना चाहता हूँ और सुख-चैन से जीना चाहता हूँ। मंगल भवन अमंगल...।
भटनागर : मंगल...। इससे पहले कि कोई अमंगल हो, तुम यहाँ से दफ़ा हो जाओ।
चौकीदार : जी, शुक्रिया।
भटनागर : और हाँ, मैं खुद सफ़ाई करने जा रहा हूँ।
चौकीदार : अच्छी बात है, कीजिए।
भटनागर : मीटिंग का समय हो गया है, कभी भी कोई आ सकता है, इसलिए बाहर ज़रा ध्यान रखना, जैसे ही कोई आये...।
चौकीदार : मैं उसे अन्दर भेज दूँगा।
भटनागर : नहीं।
चौकीदार : अच्छा, वापस भेज दूँगा।
भटनागर : नहीं, फौरन आकर मुझे बता देना, वरना मेरी इज़्ज़त का चूरन बन जाएगा।
चौकीदार : नहीं साब, अमर बहादुर चौहान ऐसा हरगिज, नहीं होने देगा। कुछ भी हो, आपकी इज़्ज़त हमारी इज़्ज़त है।
भटनागर : बहुत-बहुत शुक्रिया।
चौकीदार : अच्छा चलता हूँ।
भटनागर : रुको। जब तक न कहूँ, बिल्कुल मत हिलना।...सुनो, मेरी टेबल पर कुछ फ़ाइलें हैं, यहाँ दे जाना। हुँह...अच्छा-ख़ासा छुट्टी का दिन और मैं यहाँ ऑफ़िस में झख मार रहा हूँ।
[भटनागर सूट-बूट उतारने लगता है। अचानक चौकीदार पर नज़र पड़ती है, जो मूर्तिवत् खड़ा है।]
भटनागर : तुम ? यहाँ खड़े-खड़े क्या कर रहे हो ?
चौकीदार : साब, आपने ही तो अभी कहा था कि जब तक न कहूँ, बिल्कुल मत हिलना।
भटनागर : ग़लती हो गई मेरे बाप, बहुत बड़ी ग़लती हो गई। मुझे माफ़ कर दो और यहाँ से जाओ।
चौकीदार : जाऊँ ?
भटनागर : मैं भी वही कह रहा हूँ, जाओ।
चौकीदार : ठीक है, जाता हूँ।
भटनागर : धन्य भाग्य हमारे।...पूरा नमूना है नमूना।
[चौकीदारह जाता है। भटनागर सफ़ाई की तैयारी करता है]
भटनागर : (स्वगत) डायरेक्टर साहब सपरिवार सैर-सपाटे पर गये हैं और तख़्त-ए-ताउस मेरे लिए छोड़ गए हैं। सुबह से चकरघिन्नी बना घूम रहा हूँ। वाह, क्या ठाठ हैं ! पता होता कि डायेक्टर का चार्ज लेते ही स्वीपर बनना पड़ेगा तो भूलकर भी चार्ज न लेता। मुझसे ज़्यादा सुखी तो चौकीदार चौहान है, जो छुट्टी के दिन बीवी को पिक्चर दिखाने जा रहा है और मैं...ऐसी हालत में मुझे देखकर कोई कहेगा कि मैं कला एवं संस्कृति विभाग का डिप्टी डायरेक्टर हूँ ?...जी नहीं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी कहेगा।
[चौकीदार कुछ फ़ाइलें लाकर एक ओर रखता है और ध्यान से भटनागर को देखने लगता है। भटनागर चिढ़ जाता है ]
भटनागर : क्या है...? चड्ढी में कभी किसी आदमी को नहीं देखा है क्या ?
चौकीदार : बहुत देखा है साब, लेकिन दफ़्तर में किसी अफ़सर को ऐसी हालत में कभी नहीं देखा है।
भटनागर : आज देख लिया ? अब जाओ, अपना काम करो।...अरे हाँ, ज़रा टेलीफ़ोन लाकर यहाँ कनेक्ट कर देना।
चौकीदार : साब, पिक्चर का टाइम हो रहा है, घरवाली इन्तज़ार कर रही होगी, अगर बुरा न माने तो एक बात पूछूँ ?
भटनागर : पूछो।
चौकीदार : फोन बहुत ज़रूरी है क्या ?
भटनागर : नहीं-नहीं, बस ऐसे ही मँगा रहा हूँ। हो सकता है कि बीच में गपशप और मौजमस्ती के लिए ज़रूरत पड़ जाये।
[भटनागर झल्ला उठता है। चौकीदार अनमना-सा मुँह बनाकर बाहर चला जाता है। भटनागर बड़बड़ाता रहता है और काम निपटाता जा रहा है।]
भटनागर : जापान में भारत महोत्सव बाद में होगा, मेरा महोत्सव पहले ही हो रहा है। आप ही बताइये मुझे देखकर कोई कहेगा कि मैं ऑफ़ीसर हूँ ? जी नहीं, कच्चा-बनियान गिरोह का सरगना कहेगा।...हुँह, अफ़सर बनने चले थे...और बनो बेटा सफ़सर। अच्छा होता कि कहीं छोटे-भठूरे की दुकान खोल लेता, जहाँ अपनी इज़्ज़त तो होती, अपनी मर्ज़ी चलती। यहाँ पी० ए० महाशय ने गधे की तरह जोत दिया। हुँह, अर्जेंट मीटिंग...ज़रा-सा उन्नीस-बीस हो गया तो अपने राम का जुलूस निकल जायेगा।...मीटिंग-सीटिंग की अपनी आदत बिल्कुल नहीं है। जितने लोग, उतनी बातें। बेसिर-पैर की बातें। एक-दूसरे की बात काटकर अपनी बात को ऊपर रखना। एक-दूसरे की टाँग खींचना। बेमतलब का पांडित्य प्रदर्शन करके दूसरों पर रोब जमाना। कुछ सिर्फ़ हाँ में हाँ मिलाते हैं और कमेटी में बना रहना चाहते हैं। कुछ को सिर्फ़ गुरुदक्षिणा से मतलब होता है। और कहीं नारंग जैसे मेम्बर आ जायें तो जूतपैजार की नौबत आ जाती है। हालाँकि नारंग को मैंने फ़ोन पर इस मीटिंह के बारे में कुछ नहीं बताया है।
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